[dc]न[/dc]रेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने तीसरी बार गुजरात में चुनाव जीत लिया। भाजपा को राज्य में लगातार पांचवीं बार विजय प्राप्त हुई। भाजपा में जश्न का माहौल है जो कि होना जरूरी भी है। पार्टी के सारे दिग्गजों ने अपनी प्रतिष्ठा को गुजरात के साथ जोड़ लिया था, जो कि स्वाभाविक भी था। हिमाचल की हार को कम करके दिखाने के लिए गुजरात की जीत को बड़ा दिखाना भी जरूरी है।
[dc]गु[/dc]जरात की जीत मोदी की जीत है और हिमाचल की हार पार्टी की हार, ऐसा स्वीकार करने के लिए कोई तैयार नहीं है। कांग्रेस भी ऐसा ही कर रही है। वह हिमाचल की जीत को गुजरात में अपनी पराजय पर काबिज कराना चाह रही है। कांग्रेस के प्रवक्ता से मंत्री बने मनीष तिवारी दलीलें बांट रहे हैं कि राहुल गांधी ने हिमाचल और गुजरात में जहां-जहां भी चुनाव प्रचार किया, कांग्रेस के उम्मीदवारों की जीत हुई है। भाजपा और कांग्रेस दोनों ही चुनाव के परिणामों से खुश हैं। दोनों मानकर ही चल रहे थे कि एक को गुजरात जीतना है तो दूसरे को हिमाचल। मीडिया को चूंकि हर शाम बहस के लिए एक नए विषय की दरकार रहती है, इसलिए अब चर्चा यह चल निकली है कि नरेंद्र मोदी का राष्ट्रीय परिदृश्य पर अवतरण कब और किस तरह होगा। इस विषय से जुड़ी तमाम संभावनाओं और प्रतिक्रियाओं पर बातचीत प्रारंभ भी हो गई है। भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने गुजरात की जीत पर राज्य की जनता को बधाई देते हुए आशा व्यक्त की कि नरेंद्र भाई इसी तरह से प्रदेश की सेवा करते रहेंगे। कुछ चुनावी भविष्यवक्ताओं का दावा था कि इस बार नरेंद्र मोदी की जीत तूफानी होगी, ठीक वैसी ही जैसी कि जनता पार्टी शासनकाल के बाद वर्ष 1980 में सारे अनुमानों को झुठलाते हुए इंदिरा गांधी की हुई थी। पर वैसा नहीं हुआ। नरेंद्र मोदी स्वयं अपनी इस जीत और प्राप्त सीटों की संख्या से कितने संतुष्ट हैं, यह कभी भी पता नहीं चल पाएगा। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की औपचारिक प्रतिक्रिया का अवश्य ही इंतजार किया जाना चाहिए।
[dc]गु[/dc]जरात के बाहर चलने वाले तमाम मोदी विरोधी प्रचार तथा कांग्रेस द्वारा केशुभाई पटेल की गुजरात परिवर्तन पार्टी के साथ मिलकर अपनी पूरी ताकत झोंक देने के बावजूद नरेंद्र मोदी को प्राप्त हुई इस उपलब्धि के कारण और निहितार्थ क्या हो सकते हैं? गले नहीं उतरने लायक जो एक कारण भाजपा के वरिष्ठ नेताओं द्वारा समझाया जा रहा है वह यह है कि अपने पिछले ग्यारह वर्षों के शासनकाल के दौरान नरेंद्र मोदी ने अपने आपको काफी बदल लिया है। इसका एक अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि मोदी ने राजनीतिक रूप से अपने आपको अब काफी परिपक्व कर लिया है। साथ ही यह मतलब भी निकलता है कि गुजरात की जनता अपने आपको बदलने के लिए तैयार नहीं है। मोदी की जीत के अर्थ इस तर्क में छुपे हो सकते हैं कि भाजपा की चिंता यह नहीं बची है कि मोदी को लेकर पार्टी में अंदरूनी कलह बढ़ेगी या कम होगी, संघ की नाराजगी दूर होगी या नहीं या कि जद-यू सहित एनडीए के घटक गुजरात के मुख्यमंत्री का दिल्ली में स्वागत करेंगे या नहीं। भाजपा को इस समय ज्यादा जरूरत एक ऐसे चेहरे की है जिससे कि कांग्रेस डरती हो, जिसके कि पोस्टर्स देशभर में समर्थन और विरोध की व्यापक लहर पैदा करने की क्षमता रखते हों। साथ ही एक ऐसा नेता हो जो मुलायम और मायावती को उनकी ही भाषा में जवाब दे सके, उन्हें समझा सके। अगले सोलह महीनों के दौरान देश में अगर साम, दाम, दंड भेद की ही राजनीति चलनी है तो मोदी का दिल्ली पहुंचकर भाजपा की कमान अपने हाथों में लेना निश्चित ही जरूरी भी माना जा सकता है। गुजरात के मुख्यमंत्री के एक नजदीकी से चुनाव परिणामों के बाद जब एक टीवी एंकर ने पूछा कि मोदी अगर दिल्ली पहुंच गए तो क्या गुजरात की सरकार वे रिमोट कंट्रोल से चलाएंगे या राज्य में अपने नीचे उन्होंने नेतृत्व की कोई दूसरी पंक्ति तैयार कर रखी है? मोदी के नजदीकी इस सवाल का कोई बहुत संतोषजनक जवाब नहीं दे पाए पर उन्होंने अमित शाह और आनंदीबेन पटेल सहित कुछ नाम अवश्य गिनाए। इसमें कुछ आश्चर्यजनक भी नहीं है। ऐसी स्थिति तो लगभग सभी राज्यों में है। मोदी अगर अंतत: दिल्ली पहुंचने का ही फैसला करते हैं तो हमें उसकी भी प्रतीक्षा कर लेनी चाहिए। यह कम उल्लेखनीय नहीं है कि चुनाव परिणामों के बाद नरेंद्र मोदी ने अपने समर्थकों को पहली बार संबोधित करते हुए भाषण हिन्दी में दिया, न कि ठेठ गुजराती में। इसे उनका राष्ट्र के नाम संदेश भी माना जा सकता है।