[dc]एक[/dc] ऐसे राष्ट्र के जीवन में, जिसने विकास की उपलब्धियों से साक्षात्कार कर लिया है और जो संपन्नता के रास्तों पर दौड़ लगाते हुए विकसित व्यवस्थाओं की जमात में अपने आपको शामिल देखने के लिए बेचैन हो उठा है, आने वाला समय परीक्षा की घड़ी पेश कर सकता है। बहुत मुमकिन है विकास की जद्दोजहद में नागरिक इतने थक जाएं कि वे सवालों के सही जवाब ढूंढ़ने में अपने आपको असहाय पाने लगें। ऐसी कोई भी परिस्थिति आश्चर्य पैदा करने वाली नहीं होगी। यह भी मानना गलत होगा कि किसी भी राष्ट्र के जीवन में ऐसा पहली बार होगा या हो रहा है। ऐसा पहले भी होता रहा है। डर यह है कि एक प्रभुतासंपन्न राष्ट्र के रूप में हमसे सवाल किया जा सकता है कि विकास की दौड़ में हम किन साधनों का उपयोग करने जा रहे हैं अथवा कर रहे हैं। इसका दूसरा अर्थ इस बात का जवाब देना होगा कि स्वाधीनता प्राप्ति के लिए हम जिस तरह के अहिंसक धैर्य की एक लंबी और कठिन परीक्षा से संकल्पपूर्वक गुजरे थे, क्या उस पर हम अब भी कायम हैं या उसमें किसी प्रकार का संशोधन करने को तैयार हो गए हैं? सवाल का संबंध हिंसा के औचित्य से नहीं, बल्कि अहिंसा को ही साधन के रूप में अंतिम स्तर तक इस्तेमाल करते रहने के प्रति उस राष्ट्रीय प्रतिबद्धता से है, जिसके कि लिए हम हमेशा से दुनियाभर में पहचाने जाते रहे हैं। सही पूछा जाए तो हमारी सार्वभौमिक पहचान या ‘आइडेंटिटी’ भी वही है। ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि एक राष्ट्र के रूप में हमारे व्यक्तित्व में जिस तरह के परिवर्तन हो रहे हैं, कदमों में तीव्रता आ रही है, हम अपनी इच्छाओं के प्रति आपा खो रहे हैं, वह सब अहिंसा की सैद्धांतिक आवश्यकता का तिरस्कार करते प्रतीत होते हैं। हम साध्य की बात, साधनों की शुचिता के मुकाबले ज्यादा जोर से, मोटी आवाजों में करने लगे हैं। यह एक ऐसी परिस्थिति है, जिसमें चलती-फिरती आत्माओं और शरीरों का स्थान चालकरहित यंत्र लेने लगते हैं। यंत्र, हिंसा और अहिंसा के बीच कोई फर्क नहीं करते। यंत्रों का समूचा ‘ध्यान’ साध्य पर रहता है। वे चेहरों को नहीं पहचानते। मनुष्यों को उनके एकल स्वरूप, और समूह में समूचे राष्ट्र को यंत्रों में तब्दील करने की शर्त यही है कि उन्हें जड़वत या संवेदनाशून्य कर दिया जाए। उनके भीतर से महसूस करने की शक्ति और संभावना को पूरी तरह से निरस्त कर दिया जाए। देश और दुनिया में ‘आदिवासियों’ या ‘आदिम जातियों’ के कुछ ऐसे समूह अभी भी कायम हैं, जो प्राकृतिक रूप से उपलब्ध ‘अंधेरे’ की सीमाओं को लांघकर ‘बाहर की रोशनी’ से साक्षात्कार करने के लिए भी किसी भी लालच पर तैयार नहीं हैं। उनका साम्राज्य तमाम तरह के कानून-कायदों, अदालतों और संविधानों से अभी भी अछूता है। जनगणनाओं में वे हमारे बीच हैं, लेकिन यथार्थ में नहीं हैं। पर इससे क्या फर्क पड़ता है? एक बड़ी जनसंख्या ने तो अपने आपको बदलने का फैसला कर ही लिया है। मुद्दा यह है कि बदलने की शर्तें साध्य से तय की जा रही हैं या कि साधनों से, इस बात की स्पष्टता नहीं होने दी जा रही है। कभी होगी भी नहीं। न तो कोई इस बारे में स्पष्टीकरण मांगेगा और न कोई देगा ही।
[dc]विकास[/dc] को जब एक युद्ध में बदल दिया जाता है तो साधारण से साधारण व्यक्ति से भी अपेक्षा की जाने लगती है कि उसमें ऐसे सैनिक के गुण आ जाएं, जो केवल हुक्म का ही पालन करना जानता हो, किसी तरह के सवाल नहीं पूछता। भय यह लगता है कि विकास की यात्रा के औजारों के बारे में सवाल पूछने का मतलब विकास की अवधारणा के प्रति असहमति व्यक्त करना स्थापित किया जा सकता है। उसे अनुशासन-भंग करना करार दिया जा सकता है। इस तरह की परिस्थितियों के बाद ही यह तय किया जाता है कि वैचारिक रूप से असहमति रखने वाले ‘अल्पसंख्यकों’ को विकास की संपन्न्ता में भागीदारी दी जाए अथवा नहीं।
[dc]शासकों[/dc] की रणनीति का यह हिस्सा हो सकता है कि वे जनता के बीच किसी भी तरह की ‘वैचारिक असहमति’ को पनपने ही न दें। अगर पनपने की कोई कोशिश हो तो उसे ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ के नाम पर विकास के फायदों को बटोरने में व्यस्त उस भीड़ के हवाले कर दें, जो एक बिंदु के पश्चात ‘चालक रहित” होकर कुछ भी महसूस करना बंद कर देती है। दुनिया के अनेक राष्ट्रों में ऐसा हो रहा है। कारागारों और उनमें भेजे जाने वाले ‘असहमत’ नागरिकों की बढ़ती हुई संख्या इसी बात का प्रमाण है कि विकास के लिए अपनाए जाने वाले मॉडलों में कहीं न कहीं कोई गंभीर चूक है। और कि विकास के जरिये पैदा होने वाली संपन्नता का न्यायपूर्ण बंटवारा नहीं हो पा रहा है। अगर ऐसा सच नहीं होता तो अब तक तो कारागारों की जरूरत ही लगभग समाप्त हो जानी चाहिए थी।
[dc]विकास[/dc] की अवधारणा में साधन और साध्य के बीच के फर्क को जानबूझकर नजरअंदाज किए जाने के फलस्वरूप ही ऐसी स्थितियां उत्पन्न होती हैं। और यह फर्क उस समय पूरी तरह से गौण होने लगता है, जब बाहरी हमलों से अपने नागरिकों और संवैधानिक संस्थानों की सुरक्षा की आड़ में राज्य की शक्ति के सार्वजनिक प्रदर्शन को नागरिक प्रतिष्ठा और सार्वजनिक मान्यता प्राप्त होने लगती है। और फिर हिंसा की क्षमता पर आश्रित राज्य की इस शक्ति पर सामान्य नागरिक बिना यह संदेह व्यक्त किए गर्व और यकीन करने लगता है कि ‘वैचारिक असहमति या अल्पमतता’ की स्थिति में भी उसका इस्तेमाल उसी के खिलाफ कभी नहीं किया जाएगा। आश्चर्यजनक नहीं है कि राष्ट्रों की स्वतंत्रता के साथ-साथ नागरिक अधिकारों के सीमित होने के उदाहरण भी लगातार बढ़ रहे हैं।
[dc]मोहनदास[/dc] करमचंद गांधी की याद हमें आज के दिन इसलिए ज्यादा आती है कि वे अंग्रेजी हुकूमत की इस मंशा के प्रति सोते-जागते सचेत रहते थे कि वह राज्य की हिंसा को संस्थागत स्वरूप प्रदान कर उसे स्थायी बनाने की कानूनी गलियां ईजाद करने के बहाने नहीं ढूंढ़ ले। और साथ ही गांधी नागरिक समाज की इन कमजोरियों के प्रति भी संवेदनशील रहते थे कि साध्य तक पहुंचने की जल्दबाजी में वह धैर्य खोकर हिंसा का भी सहारा ले सकता है। इसीलिए चौरी-चौरा जैसा जब कोई कांड होता और शासन के विरुद्ध हिंसा का भी उपयोग करने के लिए नागरिक तत्पर हो उठता तो गांधी अपने देशव्यापी अहिंसक सत्याग्रह आंदोलन को भी वापस ले लेते थे। वे अंग्रेजों को अवसर ही नहीं देते थे कि वे राज्य की हिंसा का कानूनी हथियार के रूप में इस्तेमाल कर स्वतंत्रता प्राप्ति के समूचे आंदोलन की प्रामाणिकता को ही भंग कर दें।
[dc]दुर्भाग्यपूर्ण[/dc] है कि विकास के सपनों को साकार करने के प्रयासों के बीच आकार लेती हिंसा के साम्राज्य को भी नागरिकों की मौन स्वीकृति प्राप्त हो रही है। उसे नियंत्रित करने की आवश्यकता गांधी की अनुपस्थिति के साथ ही गैर-जरूरी मानी जा रही है। ये ही परिस्थितियां कालांतर में राज्य की सत्ता को अवसर प्रदान करती हैं कि वह तात्कालिक हिंसा से निपटने के लिए अपनाए जाने वाले अस्थायी उपायों को नागरिक समाज की कमजोर स्मरण शक्ति का लाभ लेते हुए छद्म तरीकों से स्थायी कर दे। ऐसा दुनिया के अनेक मुल्कों में हो रहा है। अमेरिका जैसे लोकतांत्रिक देश में आतंकी हमले की घटना के बाद ऐसा ही हुआ। नागरिक अधिकारों और आजादी के लिए लंबे संघर्ष करना पड़ते हैं। पर विकास और सुरक्षा की जरूरत जब उन्हीं अधिकारों और स्वतंत्रताओं को सीमित कर देती है तो आहट तक नहीं सुनाई देती। हम गांधी को शायद इसीलिए याद करना या दोहराना नहीं चाहते कि ऐसा करने पर हमें ऐसे बहुत सारे असुविधाजनक सवालों के उत्तर तलाशना पड़ेंगे, जिनका कि सामना करने के लिए हम तैयार नहीं हैं। पर गांधी हमारा कभी पीछा छोड़ने वाले भी नहीं हैं।
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