[dc]उ[/dc]स बहादुर लड़की की मौत हो गई, जिसे व्यवस्था की नपुंसकता के चलते बर्बरतापूर्ण तरीके से शारीरिक दरिंदगी का शिकार बनाया गया था। ‘निर्भया’ ने अंतिम सांस रेप कैपिटल के रूप में दुनियाभर में कुख्यात होती उस राजधानी दिल्ली में नहीं ली, जहां कि उसके साथ 16 दिसंबर की काली रात सत्ताधारियों की नाक के ठीक नीचे अवैध रूप से चलने वाली उस प्राइवेट बस में ज्यादती हुई थी जिसके शीशों पर काली फिल्में चढ़ी हुई थी। ठीक वैसी ही फिल्में जैसे कि काले चश्मे हुकूमत की नाकों पर चढ़े हुए रहते हैं और आंखों को शर्म से नंगा और आंसुओं से गीला नहीं होने देते। लड़की की मौत ने दिल्ली में हुकूमत को डरा दिया है। देश की सड़कों पर हजारों की संख्या में होने वाले बलात्कारों और महिलाओं के अपमान की घटनाओं से सरकारों को कभी शर्म नहीं आती और न ही वे कभी भयभीत होती हैं। ‘निर्भया’ की मौत ने उसे आतंकित कर दिया है। सरकार उन सवालों से भी खौफ खा रही है, जो उससे अब दुनियाभर में पूछे जाने वाले हैं। क्या उसे सिंगापुर इसलिए भेजा गया कि सरकार नहीं चाहती थी कि उसकी मौत उसके कंधों पर हो? ‘निर्भया का बेहतर इलाज अगर वीआईपी दिल्ली में भी संभव नहीं था तो देश की 120 करोड़ जनता और आए दिन शारीरिक यातनाओं की शिकार बनने वाली उसके जैसी हजारों महिलाओं को अपनी जान के लिए अब भीख कहां जाकर मांगनी पड़ेगी? डॉक्टरों की सलाह का मखौल उड़ाते हुए बलात्कार की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बारहवें दिन ‘निर्भया’ को इलाज के लिए सिंगापुर भेजना क्या देश की मेडिकल योग्यता का अपमान करना नहीं माना जाना चाहिए? कितने सवालों का जवाब देगी सरकार? ‘निर्भया’ के साथ हुए अमानुषिक व्यवहार के प्रतिरोध में उठे जन असंतोष के बाद दिल्ली के हृदयस्थल को किले में तब्दील कर दिया गया था। सिंगापुर से उसकी मौत का समाचार मिलने के बाद उस किले के दरवाजों पर हजारों ताले लगा दिए गए। पर लोगों की धड़कनों पर ताले कैसे लगेंगे? उनकी आवाजें कैसे कैद हो पाएंगी किले में? इतना सबकुछ हो जाने और गुजर जाने के बाद भी क्या प्रधानमंत्री पूछते रहेंगे कि ‘सब कुछ ठीक है? ‘ सवाल यह है कि एक नि:सहाय लड़की के साथ हुए अत्याचार से फूटी अहिंसक प्रतिरोध की चिंगारी क्या उसकी मौत के साथ बुझ जाएगी या जिंदा रहेगी? क्या ईमानदार युवा शक्ति द्वारा देशभर में व्यक्त हो रहा आक्रोश राजनीति के चालाक मैनेजरों के हत्थे चढ़कर यूं ही खत्म कर दिया जाएगा? अपनी पिछली सफलताओं के दम पर सरकार को ऐसा भरोसा हो भी सकता है। पर दिल्ली और सूबों की सरकारों को दिल्ली में उमड़ी युवाओं की भीड़ के जिस जज्बे से अब खौफ खाना चाहिए, वह यह है कि कानून व्यवस्था के निकम्मेपन के खिलाफ नाराजगी की दस्तक सारे प्रतिबंधों को लांघने की जुर्रत कर सकती है। दिल्ली दरबार इसलिए डरा हुआ है कि युवाओं के गुस्से की धमक राजघाट, रामलीला मैदान, जंतर-मंतर, इंडिया गेट और विजय चौक को लांघकर राष्ट्रपति भवन के दरवाजों तक जा पहुंची। और कि युवाओं की यही शक्ति पुलिस की निर्मम लाठियां, पानी की बौछारें और अश्रु गैस के गोले भी झेलने को तैयार है। स्वतंत्र भारत के इतिहास की अपने तरह की यह पहली जनचेतना है, जिसमें राजनीतिक बिचौलिए शामिल नहीं हैं, बल्कि वे डरे हुए हैं। दिल्ली से उठी भारत की इस ‘अरब क्रांति’ का जिंदा रहना इसलिए जरूरी है कि महिलाओं को अपमानित करने वाली, उनके नागरिक अधिकारों का हनन करने वाली हर किस्म की तालिबानी हरकत पर अब रोक लगना जरूरी है। युवाशक्ति के उमड़े इस आक्रोश को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नागरिकों की ओर से अपने शासकों के नाम संदेश माना जाना चाहिए।