समाचार विश्लेषण
विपक्षी पार्टियों की तरफ से अगर कोई बड़ा आसमान नहीं फटा तो प्रणब मुखर्जी देश के नए राष्ट्रपति होंगे। राष्ट्रपति भवन में बनने वाले इस ‘क्लाईमैक्स” या ‘एंटी-क्लाईमैक्स” की कल्पना की जा सकती है कि प्रणब मुखर्जी, श्रीमती प्रतिभा पाटील का स्थान लेने वाले हैं। प्रणब मुखर्जी प्रधानमंत्री बनना चाहते थे पर उनकी पार्टी उक्त पद के लिए वर्ष 2014 तक के लिए डॉ. मनमोहनसिंह को ही बेहतर नेता मानती है। वैसे भी कांग्रेस में पद, वफादारियों की कसौटी पर खरा उतरने के बाद ही प्राप्त होते हैं, और प्रणब मुखर्जी की नेतृत्व क्षमताओं को लेकर कांग्रेस के शीर्ष हलकों में हमेशा से ही भय व्याप्त रहा है। वैसे इस डर का कोई इलाज नहीं है कि प्रणब मुखर्जी अपनी प्रासंगिकता के लिहाज से रायसीना हिल्स को भी रेसकोर्स रोड में तब्दील कर देने की क्षमता रखते हैं।
कांग्रेस के पास गर्व करने का अस्थायी कारण बनता है कि राजनीतिक दाँवपेचों की मदद से उसने मुलायम कोे ममता से अलग करने के साथ ही विपक्षी एकता को भी छिन्ना-भिन्ना कर दिया। और यह भी कि कांग्रेस में प्रधानमंत्री पद का एक मजबूत दावेदार अब सम्मानपूर्वक कम हो गया है। पर प्रणब मुखर्जी की राष्ट्रपति पद के लिए संभावित जीत को 2014 के चुनावों में यूपीए-तीन की जीत भी मान लेना कांग्रेस के लिए बड़ी भूल होगी।
सही पूछें तो राष्ट्रपति पद के लिए प्रणब को आजाद करने के बाद कांग्रेस के पास अपने को कमजोर दिखाने के बेहतर कारण हो गए हैं। संकटों से निपटने में सरकार की असहायता अब ज्यादा प्रकाशवान होकर उजागर होगी, इस सच्चाई के बावजूद कि सम्मिलित विपक्ष ने खीसे निपोरने के अलावा अब तक कोई उल्लेखनीय काम करके नहीं दिखाया है। कांग्रेस को चिंतित होना चाहिए कि ममता के छिटकने के बाद एक और राज्य कांग्रेस की सूची से कम हो जाएगा। आंध्र में हुए उपचुनावों के नतीजों ने भी कांग्रेस के लिए भविष्य की पटकथा लिख दी है।
मुलायम, माया और करुणानिधि की मौजूदा मजबूरियों को देश की जनता समझती है कि यूपीए के साथ खड़े दिखना उनके लिए जरूरी क्यों है। ममता से हाथ मिलाने के बाद भी मुलायम को अगर अपनी विश्वसनीयता के प्रति स्थापित सत्य और संदेह को दोहराना पड़ा तो निश्चित ही कोई बड़ा कारण रहा होगा। पर राजनीति में स्थायी कुछ नहीं होता।
खेद तो इस सच्चाई के प्रति भी व्यक्त किया जा सकता है कि भाजपा की अगुवाई वाला एनडीए भी राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को लेकर चल रहे घटनाक्रम के दौरान अभी तक तो कमजोर और बोगस ही साबित हुआ है। भविष्य के विपक्ष और उसके नेतृत्व को लेकर भी केवल अनुमान ही लगाए जा सकते हैं। जो तय है वह यह कि प्रणब 2014 के चुनावों के बाद भी राष्ट्रपति पद पर बने रहने वाले हैं चाहे तब मनमोहनसिंह प्रधानमंत्री नहीं रहें। और यह भी कि, एक शक्तिशाली राष्ट्रपति के रूप में देश को प्रधानमंत्री की क्षमताओं वाला ऐसा व्यक्तित्व प्राप्त होने वाला है जो संवैधानिक मर्यादाओं का पालन करते हुए भी राजनीतिक भूकम्पों के केंद्र बिंदु बदल सकता है। प्रणब मुखर्जी की क्षमताओं की चर्चा के बीच बदलते घटनाक्रम पर इसलिए नजरें रखना जरूरी है कि एनडीए ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं और ममता के अनुसार, अभी खेल खत्म नहीं हुआ है।