'क्योंकि' कांग्रेस चुनाव हार गई है!

[dc]कां[/dc]ग्रेस पार्टी अपने लिए तो इन सामंतवादी संस्कारों से मुक्ति नहीं पाना चाहती है कि शासन तो कोई ‘कम पढ़ा’ भी चला सकता है और कि उत्तराधिकारी की ‘अयोग्यता’ पर उसके स्थापित चापलूस भी अंगुली नहीं उठा सकते। पर स्मृति ईरानी की केवल ‘बारहवीं पास’ पढ़ाई और मानव संसाधन मंत्रालय जैसी जिम्मेदारी उठा पाने की काबिलियत को लेकर वे तमाम पढ़े-लिखे नेता सवाल उठा रहे हैं, जिन्होंने दुनिया के नंबर वन डिग्रीधारी डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में काम करके भी कुछ हासिल नहीं किया। कांग्रेस ने देशभर से उतनी भी सीटें हासिल नहीं कीं, जितनी कि स्मृति की पार्टी ने अपेक्षाकृत कम पढ़े-लिखों के दम पर केवल एक ही राज्य से जीत लीं। मणिशंकर अय्यर ने ‘चाय वाले’ की योग्यता के लिए कांग्रेस पार्टी के दफ्तर के बाहर जगह देने की पेशकश की थी। उसका परिणाम सामने है। अजय माकन और अभिषेक मनु सिंघवी स्मृति की शैक्षणिक योग्यता को शायद इसलिए चुनौती दे रहे हैं, ‘क्योंकि’ एक ‘चाय वाले’ ने ईरानी को अमेठी में ‘उत्तराधिकार’ की परंपरा को चुनौती देने की जिम्मेदारी सौंप दी थी। इधर नई सरकार अपने अगले सौ दिनों का एजेंडा तय करने में जुटी है और उधर ‘पुरानी सरकार’ अपने पिछले ‘सवा सौ महीनों’ के एजेंडों से ही अपने को आजाद नहीं कर पा रही है। कांग्रेस के सिपहसालार इस हकीकत को अभी भी हजम नहीं कर पा रहे हैं कि 16 मई 2014 को देश को जो आजादी मिली, उसमें सत्ता की बागडोर उन ‘देसी’ लोगों के हाथों में पहुंच गई है, जिनमें ‘केवल साक्षर’ और ‘निरक्षर’ भी शामिल हैं। यानी उनमें ‘धीरूभाई अंबानी’ भी हैं और ‘ज्ञानी जैलसिंह’ भी। ज्ञातव्य है कि देश के पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह कभी स्कूल भी नहीं गए, पर उन्होंने राजीव गांधी सरकार की संवैधानिक तथ्यों के आधार पर सबसे ज्यादा खिंचाई की थी। और कभी कॉलेज में पैर नहीं रखने वाले धीरूभाई अंबानी को ‘नेतृत्व का अप्रतिम उदाहरण’ पेश करने के लिए अमेरिका के पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध व्हार्टन स्कूल द्वारा जून 1998 में उनके मुंबई स्थित निवास पर जाकर डॉक्टरेट की उपाधि से विभूषित किया गया था।
[dc]स[/dc]च्चाई यह है कि चुनाव के दौरान कांग्रेस पार्टी जनता के चेहरों में अपने भविष्य को ढूंढ़ रही थी और अब जनता अपने लिए कांग्रेसियों के चेहरों में एक मजबूत विपक्ष के भविष्य की तलाश कर रही है। ऐसे विपक्ष की, जो जबरदस्त बहुमत के अहंकार में सत्ता पक्ष को ‘लोकतांत्रिक तानाशाही’ में तब्दील नहीं होने दे। पर इसके लिए कांग्रेस पार्टी और उसके नेताओं को पराजय के ‘कोपभवन’ से बाहर निकलकर निराशा में डूबे अपने कार्यकर्ताओं की पीठें भी थपथपानी पड़ेंगी और चुनाव प्रचार दौरान के ‘चाय’ के बकाया बिलों का भुगतान भी करवाना पड़ेगा। स्मृति ईरानी की शैक्षणिक योग्यता पर बहस छेड़कर कांग्रेस के नेता अपने लिए कुछ ‘एंगेजमेंट’ अवश्य ढूंढ़ पा रहे होंगे, पर इससे उनके खिलाफ चढ़ी हुई जनता की ‘सूजन’ को उतरने का बिलकुल ही मौका नहीं मिल रहा है। सूजन बल्कि और बढ़ती जा रही है। कांग्रेस के पास अपने स्वयं के अनुभव हैं कि ए. राजा, जो बीएससी, बीएल और एमएल थे, उन्होंने टू-जी (सोनिया ‘जी’ और राहुल ‘जी’) को क्या दिया और यूपीए-दो के पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री दीनशा पटेल ने क्या योगदान दिया, जो कि सिर्फ मैट्रिक पास थे? कांग्रेस को वक्त की हकीकत को समझते हुए अपनी ‘मोदी विरोध’ की रणनीति में परिवर्तन करना चाहिए। उसने अगर ऐसा नहीं किया तो उसके प्रत्येक विरोध पर लोग फिर फिकरे कसने लगेंगे : “क्योंकि कांग्रेस चुनाव हार गई है!”

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