कौन हैं ये बिखरे हुए लोग?

कौन हैं ये तमाम लोग
जो धागे से टूटकर गिरी हुई पन्नियों की तरह
यूं जमीन और नुकीली चट्टानों पर
इस तरह से बिखरे पड़े हैं?
कहां से आए हैं ये लोग
जो कि लाए नहीं गए हैं
इस तरह बेसुध लेटे हुए
एकटक कहीं देख रहे हैं, दूर शून्य में
जैसे कि कुछ ढूंढ़ रहे हैं जो खो गया कहीं अनंत में।
पर ये देख क्यूं नहीं रहे हैं
हमें, हमारी ओर?
क्यूं नहीं फैला रहे हैं अपने हाथ, याचकों की तरह
हमारे हाथों को चूमने के लिए,
लिपटने के लिए हमसे गले
करने के लिए ढेर सारी शिकायतें
कि हम क्यों पहुंचे इतने विलंब से
या कि पहुंचे ही नहीं कभी?
क्यूं नहीं कर रहे हैं ये
जय-जयकार हमारी? हमारा गुणगान!
क्या देख नहीं पा रहे हैं ये लोग
उपहारों के बोझ से टूटते हमारे
हाथों और कंधों को?
झुकती हुई पीठ को?
क्या करेंगे अब इस सामान का हम!
कहां ले जाएंगे वापस इसे!
और किसे लौटाएंगे,
पेश करेंगे कैसी सफाइयां?
कौन करेगा हम पर यकीन
कि लोग हमें मिले ही नहीं।
मिले भी तो वे वैसे नहीं थे
जैसा कि हम जानते आए थे अब तक उन्हें।
कौन लगाएगा अब हमारे नारे
चुनावों में, बजाएगा तालियां?
और हमारी धर्मसभाओं में
कौन भरेगा स्वांग कृष्ण और राधाओं के
करेगा नृत्य, भजनों की ताल पर?
हम जो पीठाधीश्वर हैं
धर्मगुरु और हैं शंकराचार्य
अब किसे समझाएंगे कि शरीर तो
नश्वर है, उसका मोह छोड़कर
करो प्रेम आत्मा से, जो अमर है, अजर है!
कहां से लाएंगे अब हम भीड़
पालकी उठाने के लिए हमारी,
दंडवत करने के लिए हमारे अखाड़ों में!
ये जो लोग इस तरह छितरे पड़े हैं
उनका अपने पैरों पर खड़े होना
हमारे चलते रहने के लिए जरूरी है।
इन्हें इस तरह नहीं छोड़ा जा सकता!
राहत का यह जो सामान लाए हैं
पार करके इतनी बाधाओं को
इस तरह लावारिस नहीं छोड़ा जा सकता।
जरूरी सामान और जरूरी लोगों के बीच अब फर्क करना ही पड़ेगा।
लोग जो उठना ही नहीं चाह रहे हैं
और सामान को सड़ने नहीं दिया जा सकता।
हमें पता है
इसकी जरूरत लगातार पड़ने वाली है!

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *