[dc]दिल्ली[/dc] के उपराज्यपाल नजीब जंग और मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के बीच अपने अधिकारों को लेकर जिस तरह के टकराव की शुरुआत हुई है वह अब थमने वाली नहीं है। यह चलती रहेगी। केजरीवाल चाहेंगे भी कि वह चलती रहे. इससे उन्हें दिल्ली की जनता को यह समझाने का अवसर मिलेगा कि उनके नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी की सरकार को ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शह’ पर काम नहीं करने दिया जा रहा है।
केंद्र सरकार ने अब अपनी अधिसूचना जारी करके नजीब जंग की कार्रवाई का खुला समर्थन भी कर दिया है। अधिसूचना में कहा गया है कि अखिल भारतीय सेवाओं के मामले में सारी शक्तियां उप राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में ही रहेंगी.
[dc]नजीब[/dc] जंग और केजरीवाल के बीच चल रही जंग का एक दिलचस्प पहलू यह है कि दोनों में से एक की भी पृष्ठभूमि राजनीति की नहीं रही है. दोनों ही नौकरशाही के अनुभव के चश्मे से साथ अपने मौजदा मुकामों पर पहुंचे हैं. दोनों में से एक भी अगर राजनेताओं के कद का होता तो आपसी संवाद और समझौते की राह निकाल लेता जैसा कि अधिकांश राज्यों में निर्वाचित मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के बीच आम तौर पर होता है।
[dc]दोनों[/dc] ही अपने अपने नौकरशाही के संस्कारों के साथ राजनितिक परिणामों वाले टकराव में जुटे हुए हैं। नजीब जंग भारतीय प्रशासनिक सेवा के लम्बे अनुभव के बाद अपने वर्तमान पद पर पहुंचे हैं और केजरीवाल भारतीय राजस्व सेवा में अपनी सेवाएं देने के बाद। अतः दिल्ली सरकार की नौकरशाही पर नियंत्रण का मामला आसानी से निपटने वाला नहीं है।
केजरीवाल यह समझते हैं कि चूँकि दिल्ली की जनता का समर्थन उन्हें पूरी तरह से प्राप्त है इसलिए वे अपनी लड़ाई को चाहे जितनी दूरी तक ले जा सकते हैं। आखिरकार उन्हें सत्तर में से ६७ सीटें जो प्राप्त हुई हैं।
[dc]दिल्ली[/dc] के मामले में विशेषाधिकार प्राप्त उप राज्यपाल कार्यवाहक मुख्य सचिव की नियुक्ति में अगर मुख्यमंत्री की सलाह की थोड़ी सी भी परवाह कर लेते तो मामला इतना बढ़ता ही नहीं, पर ऐसा नहीं हुआ, इसीलिए केजरीवाल भी भारतीय जनता पार्टी को शायद यह बताना चाहते हैं की वे पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों मदन लाल खुराना या साहिब सिंह वर्मा की तरह कमजोर नहीं दिखाई देना चाहेंगे। अतः केजरीवाल और जंग के बीच टकराव का मुख्य मुद्दा केवल दस दिनों के लिए एक कार्यवाहक मुख्य सचिव के रूप में शकुंतला गैमलिन की नियुक्ति का हो ही नहीं सकता था।
[dc]प्रशान्तभूषण[/dc] और योगेन्द्र यादव के खिलाफ की गई कार्रवाई के बाद केजरीवाल को शायद एक ऐसे मुद्दे की तलाश थी जो उन्हें लगातार चर्चा में बनाये रख सके। वास्तव में केजरीवाल अपने आपको एक ऐसी राजनितिक शख्सियत के तौर पर स्थापित करना चाहते हैं जो अकेले दम पर ही मोदी सरकार से लड़ने की हिम्मत रखता है। केजरीवाल इसी क्रम में मीडिया के साथ टकराव करने की जोखिम भी उठा रहे हैं।
[dc]विचार[/dc] का मुद्दा यह है कि अरविन्द केजरीवाल अगर पार्टी के भीतर और बाहर टकराव की राजनीति को ही हथियार बनाकर अपने आपको पांच वर्षों तक सत्ता में बनाये रखना चाहते हैं तो एक राजनीतिक दल के रूप में आम आदमी पार्टी का भविष्य अंततः क्या बनेगा? दूसरे यह कि केजरीवाल अपनी ही नौकरशाही और केंद्र के साथ टकराव की राजनीति करते हुए दिल्ली की जनता के साथ किये गए वायदों को पूरा कर पाएंगे क्या? और अंत में यह कि देश के अन्य विपक्षी दल और उनके राजनितिक रूप से परिपक्व नेता, भाजपा के खिलाफ भविष्य की अपनी किसी लड़ाई में केजरीवाल को भी साथ लेना चाहेंगे कि नहीं ? केजरीवाल ने मुख्यमंत्री के रूप में अपने ४९ दिनों के पहले अवतार में भी टकराव की राजनीति को ही हथियार बनाया था और उसके परिणामों से भी उन्हें रूबरू होना पड़ा था। अपने दूसरे कार्यकाल में भी वे उसी रस्ते पर चल रहे हैं। हैरत नहीं कि आम आदमी पार्टी के बाकी नेता भी केजरीवाल के समर्थन में न सिर्फ चुपचाप खड़े हैं बल्कि उनके निर्यणों के प्रति हामी भर रहे हैं।
[dc]दिल्ली[/dc] की जनता को राजधानी की सड़कों पर एक नए आंदोलन का साक्षी बनने के लिए तैयार रहना चाहिए। केंद्र की अधिसूचना पर केजरीवाल ने जिस तरह की प्रतिक्रिया दी है उससे तो इसी प्रकार के संकेत मिल रहे हैं।