३० सितंबर २०१०
देश सावधानी के साथ राहत की थोड़ी सांस ले सकता है। साठ साल से चला आ रहा एक ऐसा विवाद जिसने पिछले दो दशकों से न केवल भारत की राजनीति का चेहरा बदल रखा था, उस पर सांप्रदायिक तनावों की कालीख भी पोत रखी थी, इतने शालीन तरीके से हल होने के करीब पहुंच जाएगा कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। पर सच यह भी है कि सब कुछ एकदम से सामान्य होने वाला नहीं है। वर्षों से सड़ रहा सांप्रदायिक मवाद शामे अवध के एक खुशनुमा झोंके से ही सूख जाने वाला नहीं। सभी पक्षों को अपनी-अपनी केंचुलियां उतार फेंकने में वक्त लगेगा। पिछले पच्चीस सालों के दौरान राजनीतिक और अन्य कारणों से पूरे विवाद को लेकर जिस तरह की छवि देश के राजनीतिक दलों ने गढ़ ली थी और नकाबें नेताओं ने ओढ ली थीं, उससे मुक्त होने की कोई भी कोशिश वक्त भी लेगी और कष्टदायी भी साबित होगी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ द्वारा दिए गए एतिहासिक फैसले को चुनौती देते हुए संबंधित पक्ष सुप्रीम कोर्ट में जा सकते हैं और ऐसा किया जाना न्यायपालिका की व्यवस्थाओं में देश के यकीन को और मजबूत ही करेगा। भारतीय जनता पार्टी और उससे जुड़े अन्य संगठन इस बात पर संतोष व्यक्त कर सकते हैं कि मंदिर निर्माण को एक राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर जिस तरह का आंदोलन देश में खड़ा किया गया था उसका मकसद पूरा हो गया है। पर भाजपा के सामने अब इससे भी बड़ी चुनौती यह है कि सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में जनता उससे नए एजेंडे की मांग करने वाली है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा लखनऊ फैसले के संबंध में अपनी व्यवस्था दिए जाने के बाद पिछले पांच-छह दिनों में देश की जनता ने तो अपना रुख स्पष्ट कर दिया था कि वह इस विवाद से पूरी तरह मुक्ति चाहती है। अत: लखनऊ में फैसला सुनाए जाने के दौरान देश की जनता चौकन्नी जरूर थी, भयभीत नहीं। पर बदलने का मौसम केवल भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार पर लागू नहीं होता। वे तमाम राजनीतिक दल जो बाबरी विध्वंस को मुद्दा बनाकर देश में वोटों की अल्पसंख्यक राजनीति कर रहे थे उनके लिए भी लखनऊ का फैसला चौंकाने वाला है। सच्चाई की मार निहित स्वार्थों के एक बड़े वर्ग को आहत कर सकती है। अगर ऐसा होता है तो विभाजन के बाद देश में सांप्रदायिक सौहार्द कायम करने की दिशा में उक्त फैसले को एक बड़ी उपलब्धि माना जा सकेगा। लखनऊ से जो बयार फूटी है उसे सूरमा बनाकर अमन पसंद तबकों की आंखों में उतारने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी अब केंद्र सरकार की ही है। उसे ही सबसे ज्यादा ऐहतियात बरतने की जरूरत पड़ेगी। इस बात का ध्यान भी रखना होगा कि फैसले से लाभान्वित पक्ष अपना उल्लास व्यक्त करने में अतिरेक से काम न ले। लखनऊ फैसले को एक जमीनी हकीकत में बदलना कोई आसान काम नहीं होगा। अगर सभी ने आपस में मिलजुलकर उसे आसान बना दिया तो बहुत सारे दबे हुए मसले कभी सिर ही नहीं उठा पाएंगे। देश में बहुमत तो ऐसे ही लोगों का है जो किसी मकसद के लिए जीना चाहते हैं और सांप्रदायिक दंगों के जरिए मिलने वाली मौत से सबसे ज्यादा डरते हैं। लखनऊ फैसले के पहले और बाद में देश ने जिस प्रकार धैर्य व्यक्त किया, वह इसका सबसे शानदार उदाहरण है।