[dc]पाकिस्तान[/dc] की औरत का चेहरा उसकी यातनाएं, बेबसी और एक निहत्थे इंसान के रूप में आज़ादी के लिए उसकी लड़ाई क्या भारत जैसे दुनिया के और मुल्कों से अलग है या फिर सब कुछ मिलता जुलता और एक जैसा ही है और फर्क केवल दीवारों को भेद कर सड़कों पर सुनाई देने वाली चीखों का ही है? पाकिस्तान के साथ हमारी पहचान एक पड़ोसी मुल्क से शुरू होकर आतंकवाद के एक खौफनाक ठिकाने के रूप में ही करा देने की कोशिश की जाती है। सोच की सड़क उससे आगे नहीं जाती। हमारे पूर्वाग्रह की नजरें उन हवेलियों, तंग बस्तियों और मकानों तक नहीं पहुँच पातीं जहाँ औरत एक अलग किस्म के आतंक से आज़ाद होने के लिए अपनी लड़ाई लड़ रही है। उसकी यह लड़ाई औरत के रूप में अपनी पहचान की प्राप्ति के लिए उस मजहबी और अन्य किस्म के कट्टरवाद के खिलाफ है जो उसे पुरुषों से अलग रखना चाहता है, पुरुषों के मुकाबले बराबरी का हक़ देने से इंकार करता है। एक अकेली औरत तब लड़ती है। और इस लड़ाई की शुरुआत वह अपने घर से करती है। इस लड़ाई में उसकी ताकत भी घर की दूसरी औरतें ही बनतीं हैं जिनमें शामिल होती हैं उसकी माँ और छोटी बहनें। एक अकेली औरत तो अंत में हर जाती है पर और तमाम औरतें जीत जाती हैं। औरतें तब जीतती ही जाती हैं।
[dc]प्रसिद्ध[/dc] पाकिस्तानी फ़िल्मकार शोएब मंसूर की फिल्म ‘बोल’ अंदर ही अंदर बदलते और करवटें लेते हुए पाकिस्तानी समाज की हकीकत-बयानी है। निर्देशक के तौर पर ‘खुदा के लिए’ के बाद शोएब मंसूर की यह दूसरी फिल्म है जिसे ईद के मौके पर नई दिल्ली सहित दुनियाभर में रिलीज किया गया है। वैसे इस फिल्म की नायिका पाकिस्तान की सुपरमॉडल हुमैमा मलिक हैं पर सच पूछा जाये तो उसका हरेक पात्र अपने – अपने हिस्से का नायक और नायिका है। निर्देशक के तौर पर शोएब मंसूर की सोच के दायरे, उनकी उड़ान और बहादुरी की तो बात ही अलग है।
[dc]’बोल'[/dc] को इसलिए देखा जाना चाहिए की इसमें औरत उस चेहरे में व्यक्त होती है जिससे भारतीय दर्शक अपरिचित है। ‘बोल’ की नायिका का भारतीय सामानांतर मुम्बइया फिल्मों में चोरी-छुपे हो प्रकट होता है। ‘बोल’ मदर इंडिया, सुजाता, बंदिनी आदि के साथ नारी की पीड़ा के मामले में तो नजदीक है पर संघर्ष के मोर्चे पर अलग। एक कट्टरपंथी समाज में फांसी के फंदे पर झूलने से पहले यह सवाल पूछना की ‘मारने के लिए सजा पर पैदा करने के लिए क्यों नहीं’, अथवा यह कहना कि ‘अगर पाल नहीं सकते तो पैदा क्यों करते हो’, दूसरे कई सवालों को जूझने के लिए छोड़ जाता है। ‘बोल’ एक ऐसी बोलती हुई फिल्म है जो औरत को जुबान खोलकर अपनी कहानी दुनिया को सुनाने की हिम्मत देती है। और फिर उसकी वह आवाज फिल्म के ख़त्म हो जाने के बाद भी लगातार सुनाई पड़ती रहती है, दर्शकों का पीछा करती रहती है। ‘बोल’ सवाल खड़ा करती है कि बेटियों के जन्म को लेकर औरत की जिंदगी में पैदा किये जाने वाला संताप कितना अन्यायपूर्ण है और उसके लिए वास्तव में जो दोषी है उसे सजा क्यों नहीं मिलती। ‘बोल’ की कहानी केवल पाकिस्तान तक ही सीमित नहीं है। भारत के कई हिस्सों में बेटियों के जन्म के साथ होने वाला अन्याय और उसके लिए औरतों को दी जाने वाली सजाएँ फिल्म की कहानी को एक व्यापक मानवीय व्यथा के साथ जोड़ती है। हुमैमा मालिक के साथ-साथ आतिफ इस्लाम, मंजर सेहबई, ईमान अली और माहिर खान का अभिनय दर्शकों को पूरे समय अपने साथ बांधे रहता है। ‘बोल’ को इसलिए देखा जाना जरूरी है की ऐसी फिल्में बनती नहीं हैं।