इस आपातकाल से कौन लड़ेगा?

२४ जून २०१०

देश को एक नए प्रकार के आपातकाल की ओर धकेला जा रहा है। इस आपातकाल का कोई सरकारी या राजनीतिक चेहरा नहीं है। न ही यह किसी अदालती फैसले की कोख से पैदा हुआ है जैसा कि आज से पैंतीस साल पहले हुआ था। हो यह रहा है कि लोग स्वयं ही आपातकाल भी लगा रहे हैं और गर्व के साथ सजा भुगतने के लिए तैयार भी हो रहे हैं। नागरिक अधिकारों के हनन के लिए इस बार किसी इंदिरागांधी या पुलिस ज्यादतियों के दोषी ठहराने और उसके आधार पर सत्ता परिवर्तन की गुंजाइशें पैदा करने की संभावनाएं अब नहीं बन पाएंगी। इस नए आपातकाल का संबंध उस रास्ते से है जिस पर कुछ नागरिक जमातें दादागिरी के साथ चलना चाह रही हैं और बाकी देश इस आतंक के प्रति अपने मौन में स्व्ीकृति दर्शा रहा है। अत्याधुनिक अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के निर्माण और मेट्रो सेवाओं का जाल बिछाकर राष्ट्रकुल खेलों की अगवानी में लगे देशकी राजधानी दिल्ली पड़ोसी उसके राज्यों में परिवार और जाति की इज्जत के नाम पर लगातार की हो रही हत्याएं और उनके प्रति अपराधियों के मन में किसी भी प्रकार के पश्चाताप या सजा के भय का न होना संकेत है कि इस बार का आपातकाल सरकार से निकलकर घरों तक नहीं बल्कि घरों, मोहल्लों, गांवों और खापों के रास्ते संसद सरकारों तक पहुंचेगा। पिछले आपातकाल में तो एक तरफ सत्ता पक्ष और दूसरी ओर विपक्ष पड़ा तब अधिकांश विपक्ष तब जेलों में बंद था और नागरिक अधिकारों की लड़ाई कुछ तो मीडिया और कुछ जनता अपने सीमित हथियारों के साथ लड़ रही थी। अब हालात इतने बदल गए हैं कि सत्तापक्ष और विपक्ष लगभग एक हो गए हैं। दिखाने के लिए कभी अलग-अलग भी हो जाते हैं पर फिर से आपस में मिल भी जाते हैं। भोपाल की गैस त्रासदी के मामले में (काफी कुछ) देखा जा चुका है। हरियाणा में तो खाप पंचायतों के फैसलों की सरकार व विपक्ष दोनों ही जय-जयकार कर रहे हैं। हम तालिबानी हमले के खतरे को सीमा पार से आता ढूंढ़ रहे हैं। पर तालिबानों की जो फसलें हमारे ही ईर्द-गिर्द ऊंची होती जा रही हैं। आंखें फेरी जा रही हैं। पैंतीस साल पहले की जनता की जगह अब बिना चेहरे की एक भीड़ ने ले ली है जिसमें से कुछ तो फतवे पढ़ रही है और बाकी दांतों से अपने नाखूनों को कुतरने में लगी है। मौत के फैसले अब पंचायतों के दम पर सुनाए जाते हैं। जब मुखर्जी देश को जिस विकास दर की ऊंचाई पर ले जाना चाहते हैं या राहुल गांधी जिस कलावती के झोपड़े की गरीबी के जरिए देश की जिस हकीकत से रूबरू होना चाहते हैं वह उस सच्चाई से थोड़ी भिन्न है जो जातिगत स्वार्थों के अलावा… पर गरमाई जा रही है बहुत बड़ी चिंता है कि इस तालिबानी आपातकाल से लड़ाई के लिए अब किस पर भरोसा किया जाना चाहिए?

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