आडवाणी का रथ से उतरना अभी बाकी है!

१८ दिसंबर २००९

आगे आने वाले कई वर्षों और पीढिय़ों के लिए भारतीय जनता पार्टी के भविष्य की दिशा शुक्रवार को तय कर दी गई। कई दशकों के बाद ऐसा होगा कि पार्टी किसी एक व्यक्ति के घर या चेहरे पर नहीं प्राप्त होगी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में ऐसा निश्चित ही नहीं कहा जा सकेगा। बहुत मुमकिन है, कार्यकर्ता अब मोहन भागवत में संघ और भाजपा दोनों को ढूंढऩे की कोशिश करें। सात माह पूर्व हुए लोकसभा चुनावों में पार्टी के खराब प्रदर्शन के बाद से ही भाजपा की रथयात्रा हार के लिए जिम्मेदार सेनापतियों का शिकार करने के लिए चल रही थी। कहना मुश्किल है कि शुक्रवार को नई दिल्ली में जिस तरह से नेतृत्व की जिम्मेदारियों का बंटवारा किया गया उससे पार्टी का उद्देश्य पूरा हो गया है। पार्टी के कार्यकर्ताओं के साथ ही सडक़ पर खड़ा हुआ आम आदमी भी जानता है कि नई राजनीतिक चुनौतियों से लडऩे के लिए जिस अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व के हाथों में बागडोर थमाने की जो कसरत की जा रही है वह नीचे से चलकर ऊपर नहीं पहुंची है। ऊपर से इस तरह थोपी गई है कि उसे स्वीकार करने के लिए आम सहमति बनाने में भी महीनों खर्च हो गए और पार्टी की विश्वसनीयता का ग्राफ इस बीच और भी नीचे खिसक गया। महाराष्ट्र और हरियाणा सहित अन्य राज्यों की विधानसभाओं के लिए संपन्न हुए चुनावों के परिणाम इसका उदाहरण है। चिंता का सबब यह तो निश्चित ही नहीं होना चाहिए कि संसद में विपक्ष के नेता पद से हट जाने के बाद आडवाणी युग का अंत हो गया है। भाजपा के लिए वास्तविक चिंता यह जरूर हो सकती है कि जिस युग की शुरुआत के लिए जिन नए रथों को जोता जा रहा है वे सही दिशाओं में यात्रा पर निकल पाएंगे भी कि नहीं। इस समय देश की जरूरत एक मजबूत विपक्ष की है। देश की वास्तविक ताकत सत्तारूढ़ दलों में नहीं निहित रहती। सत्ता में पहुंचकर तो भाजपा भी कांग्रेस की ही तरह बर्ताव करने लगती है। मतदाता अपने वोट के जरिए चाहे जिस भी पार्टी को सत्ता में पहुंचाता रहा हो, अपनी तकलीफों के लिए उसकी उम्मीदें हमेशा विपक्षी दलों से ही बंधी रही हैं। कम दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति नहीं कि पिछले छह वर्षों के दौरान भाजपा एक मजबूत विपक्ष के रूप में भी जनता के बीच अपना स्थान नहीं बचा सकी। भाजपा के नेताओं ने जिस तरह के सामूहिक नेतृत्व के लिए अब हामी भरी है वह निश्चित ही एक कठिन प्रयोग साबित होने वाला है। वह इस मायने में कि वह कोई सर्वमान्य राष्ट्रीय चेहरा पास में नहीं होते हुए भी अगर भाजपा का प्रयोग सफल हो जाता है तो वह किसी चमत्कार से कम नहीं होगा पर अगर विफल हो गया तो इस बार बलि के लिए ढूंढे से कोई नहीं मिलेगा। पर तमाम आशंकाओं के बावजूद प्रार्थना की जानी चाहिए कि जनता के किसी योगदान के बिना ही भाजपा ने अपने लिए जो संकट बुना था, उससे बाहर निकलने की उसकी कोशिश सफल होगी। संसद में विपक्ष को एक आक्रामक स्वरूप में देखने और राष्ट्रीय स्तर पर एक सशक्त राजनीतिक विकल्प प्राप्त करने के लिए भाजपा के इस नए प्रयोग पर दांव लगाने में कोई हर्ज नहीं है। वैसे श्री आडवाणी के इस कथन के भी अलग-अलग मायने लगाए जा सकते हैं कि वे अभी रथ से उतरे नहीं हैं।

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