[dc]सु[/dc]श्री जयललिता अगर भारत राष्ट्र का प्रधानमंत्री बनने की अपनी इच्छा को पूरा नहीं कर पाती हैं तो इस खतरे के लिए देश को तैयार रहना चाहिए कि वे फिर तमिलनाडु को, अघोषित तौर पर ही सही, एक स्वायत्त ‘तमिल राष्ट्र’ में परिवर्तित करने की हिम्मत जुटा सकती हैं। तमिल अस्मिता के नाम पर तमिलनाडु के क्षेत्रीय दल भी इस काम में उनका साथ दे देंगे और राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियां डर के मारे सन्नाटा ओढ़े कांपती हुई खड़ी रह जाएंगी। पिछले साल नवंबर में कोलंबो में हुए राष्ट्रमंडल शिखर सम्मेलन (चोगम) के दौरान अगर डॉ. मनमोहन सिंह और कांग्रेस पार्टी जयललिता और अन्य तमिल नेताओं के दबाव में न आकर अपनी रीढ़ की हड्डी को झुकाने से इनकार भर ही कर देते तो दिल्ली की सत्ता को चुनौती देने की जो अप्रिय स्थितियां आज बन रही हैं, वे नहीं बनतीं। जयललिता के नेतृत्व में तमिल दलों ने प्रधानमंत्री से तब मांग की थी कि श्रीलंका में तमिलों के साथ हुई ज्यादतियों और मानवाधिकारों के उल्लंघन की घटनाओं को देखते हुए वे कोलंबो सम्मेलन का बहिष्कार कर दें और मनमोहन सिंह की बोलती बंद हो गई थी। तमिल धमकी के आगे प्रधानमंत्री ने अंतत: कोलंबो सम्मेलन में भाग नहीं लिया, वे दिल्ली में ही दुबके रहे और विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद को अपने स्थान पर भेज दिया। डॉ. मनमोहन सिंह ने अपनी कमजोरी के जरिए राष्ट्रमंडल देशों को यही संदेश पहुंचाया कि भारत का केंद्रीय नेतृत्व कितना डरपोक है।
[dc]स[/dc]वाल यह नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार के फैसले पर हाल-फिलहाल के लिए रोक लगा दी है और जयललिता देश के पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारों को तत्काल रिहा नहीं कर पाएंगी। पर उससे क्या होता है? केंद्र की कमजोर सत्ता को चुनावों की पूर्व संध्या पर चुनौती देकर तमिलनाडु ने बाकी राज्य सरकारों के लिए रास्ता खोल दिया है। आगे चलकर पंजाब से भी मांग उठ सकती है कि बेअंत सिंह की हत्या के गुनहगारों को भी रिहा किया जाए। मौत की सजा पाए लोगों की दया याचिकाओं पर वक्त रहते फैसले करने के बजाय उन पर खादी की चद्दर ढंककर तुष्टिकरण की जो राजनीति कांग्रेस सरकार करती रही, वही अब उस पर भारी पड़ रही है। दबंग राज्य सरकारें केंद्र से अब किसी चीज के लिए प्रार्थना नहीं करतीं, दिल्ली को धमकाती हैं। माफी मंगवाती हैं।
[dc]रा[/dc]जीव गांधी जैसी राष्ट्रीय शख्सियत के हत्यारों की रिहाई के मामले को राज्य के अधिकार क्षेत्र का विषय बनाकर तमिलनाडु सरकार समूचे देश की भावनाओं को क्षेत्रवाद का जूता सुंघाना चाहती है। तमिलनाडु सरकार ने जो कुछ भी किया वह अपनी जगह, जो चीज ज्यादा बेरहमी के साथ उजागर हुई है, वह भारतीय जनता पार्टी सहित तमाम विपक्षी दलों का आचरण है। चारों ओर से प्रहार होने के चौबीस घंटों के बाद भाजपा ने बिना जयललिता या तमिलनाडु सरकार का स्पष्ट तौर पर नाम लिए आतंकवादी कार्रवाई में लिप्त हत्यारों को रिहा करने की पहल की आलोचना भर की। मानवाधिकारों का ढिंढोरा पीटने वाले वामपंथी दल पूरी तरह से खामोश हैं। उन्होंने हाल ही में जयललिता के साथ चुनावी समझौता किया है। बाकी दलों को भी चुनावी गठबंधनों का सांप सूंघ गया है।
[dc]त[/dc]मिलनाडु सरकार के निर्णय के खिलाफ केंद्र की याचिका पर 6 मार्च को या उसके बाद की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट चाहे जो भी फैसला करे, एक बात जो तय है वह यह है कि एक संवेदनशील मुद्दे पर तमिल जनता की भावनाओं को उभारकर अपने पक्ष में करने की जयललिता की रणनीति कुछ हद तक सफल हो गई है। तमिलनाडु की जनता को उन्होंने केंद्र सरकार के विरुद्ध लगभग एकजुट कर दिया है। उसके इस काम में 2-जी की जली द्रमुक भी साथ हो गई है। पर साथ ही, दूसरी ओर जयललिता ने अपने एक कदम से स्वयं के लिए जो नुकसान किया, वह भी कम नहीं। वह यह है कि लोकसभा चुनावों में तात्कालिक लाभ के लिए उन्होंने अपने दूरगामी हितों को दांव पर लगा दिया। राजीव गांधी के हत्यारों की रिहाई की पैरवी कर जयललिता ने कभी कालांतर में समूचे देश की जनता की नेता बनने की संभावनाओं पर आगे बढ़कर पलीता लगवा लिया। नहीं चाहते हुए भी उन्होंने कांग्रेस को यह फायदा पहुंचा दिया कि चुनाव परिणामों की परवाह किए बगैर एक गलत फैसले के खिलाफ राहुल गांधी ने पहली बार कोई स्टैंड तो लिया। केंद्र सरकार ने भी हिम्मत करके सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया। ऐसा किया जाना देश के हित में जरूरी भी था। इस बात का जिक्र भी यहां किया जा सकता है कि अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली तेरह महीनों की सरकार ने वर्ष 1999 में संसद का विश्वास केवल एक मत से केवल इसलिए खो दिया था कि जयललिता की पार्टी ने अपना समर्थन वापस ले लिया था। अपनी ताजा जरूरतों और नए नेतृत्व के चलते भारतीय जनता पार्टी अगर पंद्रह साल पुराने हादसे को अब भूल जाना चाहती है तो उसकी मजबूरियों पर गौर करते हुए आश्चर्य नहीं व्यक्त किया जाना चाहिए। भाजपा के लिए वाजपेयी आदर्श पुरुष भी बने रहेंगे और साथ ही जयललिता की राजनीतिक जरूरत भी उसे हमेशा बनी रहेगी। भाजपा उम्मीद नहीं छोड़ेगी कि मोदी की सरकार बनाने में अगर टेके की जरूरत पड़ी तो अन्नाद्रमुक की मदद उसे मिलेगी। कपिल सिब्बल के सवाल उठाने से कोई फर्क नहीं पड़ता कि अफजल गुरु के लिए फांसी की मांग उठाते रहने वाली भाजपा राजीव गांधी के हत्यारों की रिहाई के मुद्दे पर मुखर होकर क्यों नहीं बोलना चाहती? क्या अरुण जेटली और प्रकाश जावड़ेकर ने उक्त विषय पर जितना कुछ कह दिया, उसे ही पर्याप्त मान लिया जाए?
[dc]पू[/dc]रे एपिसोड की एक उपलब्धि यह अवश्य मानी जा सकती है कि जयललिता कम से कम वर्ष 2014 के चुनावों के लिए तो प्रधानमंत्री पद की दौड़ से बाहर हो गई हैं। दूसरे यह कि वे किसे समर्थन देंगी, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण अब यह हो गया है कि उनके सहयोग का जोखिम कौन लेना चाहेगा। तेलंगाना को लेकर चल रहा संघर्ष तो आगे-पीछे शांत हो जाएगा, पर जयललिता ने जिस लड़ाई की शुरुआत की है, वह लंबी चल सकती है।