अंधेरी रात की उस घड़ी में
टटोल रहे थे तुम जब आंखों की कोई चमक
दिखाने के लिए तुम्हें रास्ता
सिर से ऊंचे उठते तूफ़ान से
बचाने के लिए अपने आपको
मुझे होना था तुम्हारे पास
एकदम निकट, बिलकुल सटे हुए
पर मैं नहीं था वहां।
तुम जब तलाश रहे थे
ऊष्मा से भरे मेरे स्पर्श को
मैं था तुमसे कहीं दूर
जहां नहीं पहुंच सकती थी
कोई आहट और आवाज़
संतृप्त–सा
ढूंढ़ रहा था अपने भीतर की वह कोमल नदी
और सहस्रधाराओं को उसकी
जो सूख गई थी, सहते हुए
तुम तक न पहुंच पाने के
विलंब को।
मैं जानता हूं
अब बारी है मेरी
प्रतीक्षा करने की
टटोलने के लिए आंखों की कोई चमक
रास्ता दिखाने के लिए मुझे
अंधेरे तूफ़ान से बाहर निकलने के लिए
जो कि नहीं बचा है हिस्सा
अब मेरे भीतर की नदी का।