[dc]क[/dc]र्नाटक विजय के बाद दस जनपथ के दरवाजों पर ढोल-ढमाकों के साथ जश्न का जो माहौल बनाया गया था, वह दो दिनों के भीतर सात रेसकोर्स रोड की चौखट पर एक ऐसी शर्म में तब्दील हो गया जो पहले कभी नहीं देखी गई। कहा जा सकता है कि जुलाई के पहले सप्ताह में सरकार द्वारा हलफनामा पेश किए जाने के दो महीने पहले ही सीबीआई को पच्चीस प्रतिशत स्वायत्तता प्राप्त हो गई है। सीबीआई से डरने की बारी अब मुलायम सिंह और मायावती सहित उन नेताओं की होनी चाहिए जिनकी कि फाइलें जांच एजेंसी के दफ्तर में अन्यान्य कारणों से दबाकर रखी गई हैं। अब इत्मीनान के साथ कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार के आरोपों में गले-गले तक डूबी सरकार ने अंतत: अंगुली कटाकर शहादत हासिल करने का इंतजाम कर ही लिया। ऐसा करने के लिए उसे भारी साहस जुटाना पड़ा और इस दौरान समूचे देश को अपनी सांसें रोककर प्रतीक्षा करने को बाध्य होना पड़ा। जनता, मीडिया और विपक्ष के दबाव में जो फैसला सोनिया गांधी ने शुक्रवार को लिया वह वक्त रहते कर लिया गया होता तो शायद सरकार और पार्टी को शर्मिंदगी का बोझ कम ढोना पड़ता। होना तो वास्तव में यह चाहिए था कि अपने दो निकटस्थ मंत्रिमंडलीय सहयोगियों पर लगे गंभीर आरोपों के लिए नैतिक रूप से स्वयं को दोषी मानते हुए डॉ. मनमोहन सिंह खुद भी त्यागपत्र देने की पेशकश करते। पर प्रधानमंत्री की बड़ी चिंता शायद यह भी रही होगी कि भ्रष्टाचार ही अगर पद पर बने रहने या नहीं रहने का मुद्दा बन गया तो फिर लगभग पूरा मंत्रिमंडल ही खाली हो जाएगा। साथ ही यह भी कि अगर वे भी इस्तीफा दे देते हैं, तो पार्टी प्रधानमंत्री के पद पर किसे बैठाएगी! प्रधानमंत्री की ठीक नाक के नीचे उनके रेल मंत्री के भांजे का हवाला कांड रेलभवन से लेकर चंडीगढ़ स्थित विशाल कोठी के बीच चलता रहा और सोनिया गांधी, राहुल गांधी और मनमोहन सिंह के खुफिया तंत्र को इसकी भनक तक नहीं पड़ी। गौर किया जाए कि पवन बंसल पूर्व में संसदीय कार्य, जल संसाधन और वित्त राज्य मंत्री के पदों पर मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में कार्य कर चुके हैं और मामा-भांजों की सारी फाइलें अभी खुलना बाकी हैं। और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अवमानना करते हुए कोयला खदानों के आवंटन की स्टेटस रिपोर्ट में जब कानून मंत्री फेरबदल करने की जुर्रत कर रहे थे तब प्रधानमंत्री कार्यालय भी इस काम में अपनी भागीदारी निभा रहा था। बर्खास्त किए गए दोनों मंत्री प्रधानमंत्री की ही पसंद थे। सीबीआई अब अगर रेल रिश्वत कांड में बंसल से पूछताछ कर उन्हें अपनी हिरासत में लेने की हिम्मत दिखाती है तो पूछना चाहिए कि कांग्रेस पार्टी चुनावों में जनता को किस तरह से अपना मुंह दिखाएगी। इसे कांग्रेस पार्टी के खिलाफ कुप्रचार से अधिक तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री दोनों मंत्रियों को बचाना चाहते थे, पर उन्हें सोनिया गांधी के दबाव के चलते विपरीत निर्णय लेना पड़ा। विपक्ष द्वारा एक सप्ताह तक संसद न चलने देने की कीमत पर भी दोनों मंत्रियों का बहादुरी के साथ बचाव करते रहने के बाद बर्खास्त किए जाने को कांग्रेस की उच्च-स्तरीय चुनावी रणनीति का ही एक हिस्सा मानना चाहिए। यह मानकर भी चला जा सकता है कि कांग्रेस के पास डॉ. मनमोहन सिंह तो हैं, पर ‘प्रधानमंत्री’ नहीं है।